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Maize Cultivation

बेबी कॉर्न की खेती: किसान की अधिक आय

बेबी कॉर्न की खेती: किसान की अधिक आय

बेबी कॉर्न (शिशु मकई) वास्तव में मकई के पौधे का वह मुलायम भुट्टा है, जिसे उस अवस्था में तोड़ लिया जाता है, जब उसमें रेशमी रेशे या तो बिल्कुल ही नहीं आये होते हैं या फिर उनके आने की शुरूआत हुई होती है। 

यही नहीं, इनमें निषेचन की क्रिया भी नहीं हुई होती है। इसे बेबी कॉर्न या शिशु मकई कहा जाता है। ये कच्चे भुट्टे ऊँगली या गुल्ली के आकार (1-3 सेमी. व्यास) के होते है और इसका स्वाद कुरकुरा एवं लाजबाव होता है। 

इसका उपयोग बतौर सब्जी के रूप में भी किया जाता है। अपनी हल्की मिठास व कुरकुरापन के कारण इसकी लोकप्रियता भारत तथा अन्य देशों में लगातार बढ़ रही है। 

बेबी कॉर्न खाने में अधिक पौष्टिक होता है। इसकी खेती में कीटनाशी रसायनों के छिड़काव की आवश्यकता नहीं पड़ती है, क्योंकि छिलके से पूरी तरह ढ़के होने के कारण इन पर कीटों का प्रकोप नहीं होता है। इसलिए स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बेबी कॉर्न का सेवन लाभदायक है।

महत्व, उपयोग और लाभ 

बेबी कॉर्न के प्रमुख लाभ:

  1. पाचन में सुधार - मकई फाइबर से भरपूर होता है जो पाचन के लिए बहुत अच्छा होता है। यह कब्ज, बवासीर को रोकता है और यहां तक कि कोलन कैंसर के खतरे को भी काफी कम करता है।
  2. त्वचा की देखभाल- मक्का एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होता है जो त्वचा को लंबे समय तक जवान बनाए रखने में मदद करता है।
  3. आंखों की देखभाल - मक्का बीटा-कैरोटीन का एक समृद्ध स्रोत है जो शरीर में विटामिन ए बनाता है और अच्छी दृष्टि के रखरखाव व रक्त के लिए आवश्यक है।
  4. भ्रूण के शुरुआती विकास में मदद - मकई में मौजूद फोलिक एसिड अजन्मे बच्चे में असामान्यताओं को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  5. गर्भावस्था के दौरान मतली और उल्टी को रोकें - बेबी कॉर्न में विटामिन बी-6 होता है। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि विटामिन बी-6 गर्भवती महिला में मतली और उल्टी का इलाज कर सकता है।
  6. दिल की रक्षा - आपके शरीर में खराब कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करके हृदय स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है।
  7. रक्तचाप को संतुलित करने में मदद - बेबी कॉर्न हमारे रक्तचाप के स्तर को नियंत्रित रखने में मदद कर सकता है क्योंकि इसमें पोटेशियम होता है।
  8. कैंसर को रोकें - मक्का एंटीऑक्सीडेंट का एक समृद्ध स्रोत है जो कैंसर पैदा करने वाले मुक्त कणों से लड़ता है। वास्तव में, कई अन्य खाद्य पदार्थों के विपरीत, खाना पकाने से वास्तव में स्वीट कॉर्न में उपयोगी एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा बढ़ जाती है। यह फेरुलिक एसिड नामक फेनोलिक यौगिक का एक समृद्ध स्रोत है, एक एंटी-कार्सिनोजेनिक एजेंट जिसे ट्यूमर से लड़ने में प्रभावी दिखाया गया है जो स्तन कैंसर के साथ-साथ यकृत कैंसर का कारण बनता है।
  9. एनीमिया को रोकता है - मकई इन विटामिनों की कमी के कारण होने वाले एनीमिया को रोकने में मदद करता है। मक्के में आयरन का भी महत्वपूर्ण स्तर होता है, जो नई लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक आवश्यक खनिजों में से एक है; आयरन की कमी एनीमिया का एक मुख्य कारण है।
  10. रक्त शर्करा को संतुलित करने में मदद - बेबी कॉर्न का ग्लाइसेमिक इंडेक्स नियमित कॉर्न से कम होता है।
  11. विटामिन का समृद्ध स्रोत - विटामिन ए, बी, ई और विटामिन बी-6 भी पाया जाता है

 ये भी देखें: बेबी कॉर्न की खेती (Baby Corn farming complete info in hindi)

उन्नत किस्में

बेबी कॉर्न के उत्पादन के लिए मकई की किसी भी किस्म का उपयोग कर सकते हैं किन्तु व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन के लिए अर्ली कम्पोजिट व वी०एल०-42 उपयुक्त पाई गई है। इसके अतिरिक्त एच.एम.-4, आज़ाद कमल (संकुल), एम०ई०एच०-114, एम०ई०एच०-133, बी०एल०-16, गोल्डन बेवी, प्रकाश, केशरी और पी०एस०एम०-३ किस्मों को बेबी कॉर्न की सफल खेती के लिए चुना जा सकता है।

मौसम व भूमि की तैयारी

उत्तर भारत में मार्च से अक्टूबर तक तीन फ़सलें ली जा सकती हैं। लगभाग 2 महीने में फसल तैयार हो जाती है। बेबी कॉर्न के लिए मिट्टी की आवश्यकताएं, तैयारी और फसल प्रबंधन पद्धतियां स्वीट कॉर्न और पॉपकॉर्न के समान ही हैं।

पहली जुताई डिस्क हैरो से तथा अगली 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें तथा खेत को तैयार करने के लिए कल्टीवेटर का प्रयोग करें। बुआई के समय पर्याप्त नमी आवश्यक है।

बोवाई

बीज दर 20-25 किग्रा/हेक्टेयर की अनुशंसित की जाती है। इससे अधिक संख्या में भुट्टे पैदा होंगे और परिणामस्वरूप किसानों को अधिक लाभ मिलेगा। किस्म के चयन के समय छोटे कद और उपजाऊ किस्मों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। 

खुले परागण वाली किस्मों की तुलना में संकर किस्मों को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि संकर किस्म फूलने में अधिक समान होते हैं। इस प्रकार उन्हें तोड़ने में केवल 4-5 समय की आवश्यकता हो सकती है। 

 ये भी देखें: बेबीकॉर्न उत्पादन की नई तकनीक आयी सामने, कम समय में ज्यादा मुनाफा

इसके विपरीत किस्मों में फूल एक समान न होने के कारण कटाई में अधिक समय लगता है। छोटे कद की सामग्री को उच्च पौधों के घनत्व में अच्छी तरह से समायोजित किया जा सकता है।

पोधो से पोधो की दूरी

बेबी कॉर्न के लिए दो प्रणालियों का उपयोग किया जाता है। एक प्रणाली प्रति हेक्टेयर लगभग 58000 पौधों की मानक आबादी का उपयोग करती है, जहां ऊपरी बाली को अनाज मकई या स्वीट कॉर्न के लिए पौधे पर छोड़ दिया जाता है, और बाद की बालियों को बेबी कॉर्न के लिए काटा जाता है। 

दूसरी प्रणाली 45 सेमी x 20 सेमी की दूरी पर प्रति पहाड़ी 2 पौधों के साथ उच्च पौधों की आबादी का उपयोग करती है, जिसका जनसंख्या घनत्व 1,11,111 पौधे/हेक्टेयर है, जहां सभी बालियों को बेबी कॉर्न के लिए काटा जाता है। 

मानक पौधों की आबादी प्रति हेक्टेयर लगभग 46.5 क्विं. बिना भूसी वाली बालियां (4.65 क्विं. भूसी वाली बालियां) पैदा करती है, जबकि उच्च आबादी प्रति हेक्टेयर लगभग 93-10.6 0 क्विं. बिना भूसी वाली बालियां (9.3-10.60 क्विं. भूसी वाली बालियां) पैदा करती है।

पोषक तत्व प्रबंधन:

8-10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद तथा नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश एवं जिंक सल्फेट 150-180:60:60:25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयोग करना आवश्यक है।

नाइट्रोजन का प्रयोग तीन भागों में करना चाहिए। फास्फोरस, पोटाश तथा जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन का 1/3 भाग बुआई के समय, 1/3 नाइट्रोजन बुआई के 25 दिन बाद तथा नाइट्रोजन का शेष भाग 40 दिन बाद खेत में फैलाना चाहिए। 

कीटनाशी प्रबंधन:

भारत में मक्के के चार प्रमुख कीट प्रचलित हैं। ये हैं चित्तीदार तना बेधक, गुलाबी तना बेधक, शूट फ्लाई और फॉल आर्मीवर्म । एकीकृत कीट प्रबंधन (आई.पी.एम.) का उद्देश्य रासायनिक, जैविक, नई फसल प्रणाली, सांस्कृतिक प्रथाओं में संशोधन, प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग और यांत्रिक तरीकों जैसी तकनीकों के संयोजन के माध्यम से कीटों का प्रबंधन करना है। 

आईपीएम का वर्णन निम्नलिखित है:

  • ठूंठों को एकत्र करना एवं नष्ट करना।
  • ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई (संरक्षित कृषि के अंतर्गत अनुशंसित नहीं)
  • जाल फसल के रूप में सीमा में नेपियर घास का रोपण।
  • मक्के को लोबिया के साथ 2:1 के अनुपात में अंतरफसल करें।
  • अंकुरण के 7 और 15 दिन बाद ट्राइकोग्रामा चिलोनिस 8 कार्ड/हेक्टेयर (1,50,000 परजीवी अंडे/हेक्टेयर)
  • जब संक्रमण 10% से अधिक हो जाए, तो क्लोरेंट्रानिलिप्रोल 18.5 एससी @150 मि.ली./हेक्टेयर का छिड़काव करें।

प्राकृतिक शत्रु

  • अंडा परजीवी: ट्राइकोग्रामा चिलोनिस
  • लार्वा परजीवी: कोटेसिया फ़्लैवाइप्स
  • प्यूपलपैरासिटॉइड: ज़ैंथोपिमला स्टेममेटर, टेट्रास्टिचस हावर्डी
  • शिकारी: क्राइसोपर्ला कार्निया, कोकीनेलिड, मकड़ी, ईयर विग, ड्रैगन मक्खी, शिकार करने वाला मंटिड, पेंटाटोमिड बग, रेडुविड बग, डाकू मक्खी, रोव बीटल, ततैया

कटाई एवं उपज:

बालियों की कटाई (उभरने के 50-60 दिन बाद) तब की जाती है जब रेशम 1-3 सेमी लंबा हो जाता है, यानी रेशम निकलने के 1-3 दिन के भीतर। 

चारा मक्के की किस्मों की कटाई रेशम निकलने के समय की जाती है, जबकि अधिक गीली किस्मों की कटाई उस समय तक की जा सकती है जब रेशम लगभग 5-6 सेमी लंबे होते हैं। एक पौधे पर कई भुट्टे आ सकते हैं, तथा कई बार कच्चे, ताजे भुट्टे ले सकते हैं।

बेबी कॉर्न की तुड़ाई तीन दिन में एक बार करनी होती है और इस्तेमाल किए गए जीनोटाइप के आधार पर आम तौर पर 7-8 तुड़ाई की आवश्यकता होती है। अच्छी फसल में औसतन 15-19 क्विंटल/हेक्टेयर बेबी कॉर्न की कटाई की जा सकती है। 

हरे चारे की बिक्री से भी अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है, जिसकी उपज 250-400 क्विंटल/हेक्टेयर तक हो सकती है। बाद में हरे पौधे पशुओं के लिए उत्तम चारे के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

भंडारण

कटे हुए बेबी कॉर्न को इसकी गुणवत्ता पर अधिक प्रभाव डाले बिना 10oC पर 3-4 दिनों तक संग्रहीत किया जा सकता है। दीर्घकालिक भंडारण और दूर के परिवहन के लिए, बेबी कॉर्न को नमकीन घोल (3%), चीनी (2%) और साइट्रिक एसिड (0.3%) घोल में डिब्बाबंद किया जाता है और प्रशीतित परिस्थितियों में संग्रहीत किया जाता है। बेबी कॉर्न को सिरके में भी संग्रहित किया जा सकता है। 

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बेबी कॉर्न के विभिन्न व्यंजन:

  • बेबी कॉर्न करी: इसमें बेबी कॉर्न को स्वादिष्ट मसाले और करी पत्तों के साथ पकाकर बनाया जाता है। इसे गरमा गरम चावल के साथ परोसा जा सकता है।
  • बेबी कॉर्न मंचूरियन: इसमें बेबी कॉर्न के टुकड़े को मैदा और मसालों के साथ फ्राई किया जाता है, और फिर इसे मंचूरियन सॉस के साथ परोसा जाता है।
  • बेबी कॉर्न फ्राइड राइस: इसमें बेबी कॉर्न को फ्राइड राइस में डालकर स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार किया जाता है।
  • बेबी कॉर्न सलाद: इसमें बेबी कॉर्न को ताजे सब्जियों और सलाद सॉस के साथ मिलाकर स्वादिष्ट सलाद तैयार किया जाता है।
  • बेबी कॉर्न करी पास्ता: इसमें बेबी कॉर्न को पास्ता और करी सॉस के साथ मिलाकर एक लाजवाब पास्ता व्यंजन बनाया जाता है।
  • बेबी कॉर्न टिक्का: इसमें बेबी कॉर्न को टिक्का मसाले के साथ मरिनेट करके ग्रिल किया जाता है और यह स्वादिष्ट स्टार्टर के रूप में परोसा जाता है।
  • बेबी कॉर्न सूप: इसमें बेबी कॉर्न को सूप में डालकर स्वादिष्ट और पौष्टिक सूप बनाया जाता है।
  • ये कुछ प्रमुख बेबी कॉर्न से बनाए जाने वाले विभिन्न व्यंजन हैं। इन्हें बनाना सरल होता है और इनका स्वाद अत्यधिक मनभावन होता है।

निष्कर्ष

बेबी कॉर्न एक उच्च मूल्य वाली फसल है जो 50-60 टन/हेक्टेयर हरे चारे के बोनस के साथ कम समय (लगभग 60-63 दिन) में अच्छा रिटर्न देती है। इसलिए, यह बहुफसली खेती के लिए सबसे उपयुक्त है। 

फसल खराब होने के समय यह आकस्मिक फसल के रूप में भी कार्य करता है। बेबी कॉर्न न केवल नकदी फसल है बल्कि कैच क्रॉप भी है। अधिक जानकारी के लिए आप नीचे दी गई वेबसाइट्स पर जाकर जानकारी ले सकते हैं ।

https://icar.org.in/crop-science/maize
https://ccari.icar.gov.in/dss/baby%20corn.html#land
https://ndpublisher.in/admin/issues/EAv67n1sa.pdf
Cultivation of infant maize (baby corn) - Agriculture Department, Government of Uttar Pradesh (upagripardarshi.gov.in)अंजू कापड़ी, शनि गुलैया और एच एस गौड़
गलगोटियास यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा
संबंधित लेखक ईमेल: anju.kapri@galgotiasuniversity.edu.in 
बेबी कॉर्न की खेती से सालभर में 3 से 4 बार कमाऐं मुनाफा

बेबी कॉर्न की खेती से सालभर में 3 से 4 बार कमाऐं मुनाफा

भारत के साथ साथ विश्वभर में बेबी कॉर्न की तेजी से मांग बढ़ रही है। बेबी कॉर्न का स्वाद सबको को पसंद आ रहा है। वर्तमान में बेबी कॉर्न होटलों और रेस्टोरेंट तक ही सीमित नहीं रह गए, इनकी घरेलू और विदेशी बाजारों में भी खूब मांग बढ़ रही है। 

बेबी कॉर्न को कृषकों के लिए कम वक्त में ज्यादा आय करने का सबसे शानदार विकल्प माना जा रहा है। किसान बेबी कॉर्न की फसल से सालभर में करीब 3 से 4 बार मोटी आय अर्जित कर सकते हैं। 

बेबी कॉर्न एक स्वादिष्ट, पौष्टिक तथा बिना कोलेस्ट्रोल का पौष्टिक खाद्य आहार है। इसके साथ ही इसमें फाइबर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसमें खनिज की मात्रा एक अंडे में पाए जाने वाले खनिज की मात्रा के बराबर होती है। 

बेबी कॉर्न के भुट्टे, पत्तों में लिपटे होने के कारण कीटनाशक रसायन से मुक्त होते हैं। स्वादिष्ट एवं सुपाच्य होने के कारण इसे एक आदर्श पशु चारा फसल भी माना जाता है। हरा चारा, विशेष रूप से दुधारू मवेशियों के लिए अनुकूल है जो एक लैक्टोजेनिक गुण है।

बतादें, कि बेबी कॉर्न स्वादिष्ट होने के साथ साथ पौष्टिक आहार भी है। दरअसल, इसके अंदर कैल्शियम, आयरन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन आदि विघमान हैं।

बेबी कॉर्न की फसल पर कीटनाशक दवाइयों का भी प्रभाव नहीं पड़ता है। बेबी कॉर्न का सबसे ज्यादा इस्तेमाल सलाद, सूप, सब्जी, अचार, पकोड़ा, कोफ्ता, टिक्की, बर्फी लड्डू हलवा और खीर के लिए किया जाता है। 

बेबी कॉर्न की खेती के लिए मृदा एवं सिंचाई ?

किसान बेबी कॉर्न की खेती दोमट मृदा में करके कम वक्त में अधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं। किसानों को बेबी कॉर्न की फसल लगाने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद की दो से तीन जुताई किसानों को कल्टीवेटर में पाटा लगाकर करनी चाहिए। 

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बेबी कॉर्न की बुवाई करते वक्त खेत की मृदा में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। इसकी फसल को तैयार होने के लिए करीब दो से तीन सिंचाई की जरूरत होती है। इसकी पहली सिंचाई के करीब 20 दिनों उपरांत दूसरी सिंचाई करें और तीसरी फूल आने से पहले करें। 

बेबी कॉर्न की प्रमुख उन्नत किस्में कौन-सी हैं ?

अगर आप भी बेबी कॉर्न की खेती करके कम समय में अधिक अधिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको बेबी कॉर्न की उन्नत किस्मों का भी चयन करना चाहिए। 

बेबी कॉर्न की खेती से बेहतरीन उपज हांसिल करने के लिए आप बी.एल.-42, प्रकाश, एच.एम.-4 और आजाद कमल किस्म की खेती कर सकते हैं। 

बेबी कॉर्न की तुड़ाई कब करनी चाहिए ?

किसान भाइयों को बेबी कॉर्न की फसल की तुड़ाई तीन से चार सेमी रेशमी कोपलें आने तक कर लेनी चाहिए। आपको ध्यान रखना है, कि बेबी कॉर्न की तुड़ाई करते समय गुल्ली के ऊपर की पत्तियों को नहीं तोड़ना चाहिए। 

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बेबी कॉर्न से होगी जबरदस्त कमाई ?

अगर आप भी बेबी कॉर्न की खेती से शानदार मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, तो आपको इसे सही ढ़ंग से करना चाहिए। ताकि आप प्रति हेक्टेयर पर 40 से 50 हजार रुपये की आसानी से कमाई कर सकते हैं। 

किसान बेबी कॉर्न की फसल से 1 साल में 3 से 4 बार तुड़ाई कर सकते हैं। ऐसा करने से किसान 1 साल में ही बेबी कॉर्न की फसल से 2 लाख से भी ज्यादा की आमदनी कर सकते हैं।

भविष्य की फसल है मक्का

भविष्य की फसल है मक्का

मक्का भविष्य की फसल है। हम यह बात इसलिए भी कह रहे हैं क्योंकि मक्का में पोषक तत्वों की मौजूदगी गेहूं से कहीं अधिक है। इसकी उपज भी साल में दो बार ली जा सकती है। इसके अलावा मनुष्य के लिए खाद्यान्न के साथ पशुओं के लिए पोषक चारा भी इससे मिल जाता है। इसकी खेती के लिए यदि सही तरीके अपनाए जाएं तो उपज 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है। खरीफ में पैदा होने वाली मक्का के अच्छे उत्पादन के लिए जरूरी बिंदुओं हम प्रकाश डाल रहे हैं। 

कैसे करें खेती

makka ki kheti 

 मक्का की खेती के लिए बालवीर 2 मठ भूमि उपयुक्त रहती है। ऐसे खेत का चयन करें जिसमें से पानी निकल जाता हो। खेत को भैरव और कल्टीवेटर से दो-दो बार जोत कर पाटा लगाना चाहिए।अच्छी पैदावार के लिए आखरी जुताई में उर्वरकों का प्रयोग करें। 

कितना उर्वरक डालें

makka urvarak


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उर्वरकों का प्रयोग करने से पहले खेतों की मिट्टी की जांच करा लेनी चाहिए ताकि हमें पता चल सके कि हमारे खेत में किन-किन तत्वों की कितनी कमी है। यदि मृदा परीक्षण नहीं हुआ है तो देर से पकने वाली शंकर एवं संकुल पर जातियों के लिए 120, 60, 60 व शीघ्र पकने वाली प्रजातियों हेतु 100, 60,40 तथा देशी प्रजातियों के लिए 60, 30, 30 किलोग्राम नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश की क्रमशः मात्रा का प्रयोग करें। अच्छी फसल के लिए सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग अवश्य करें। उसकी मात्रा 10 टन प्रति हेक्टेयर खेत में डालनी चाहिए। उक्त कभी कल उर्वरकों में से नाइट्रोजन को पानी लगाने के बाद के लिए आधी मात्रा में बचा लेना चाहिए बाकी उर्वरकों को मिट्टी में मिला दें। 

कब करें बिजाई

makka ki buwai 

देर से पकने वाली मक्का मई से मध्य जून तक कभी भी बोई जा सकती है। इसकी बिजाई मशीन से लाइनों में उचित दूरी पर करनी चाहिए ताकि भविष्य में निराई गुड़ाई उर्वरक प्रबंधन आदि में आसानी रहे। प्रति किलोग्राम बीज को ढ़ाई ग्राम थीरम, 2 ग्राम कार्बन्जिडाजिम या 3 ग्राम ट्राइकोडरमा से उपचारित करके ही बोना चाहिए। उपचारित करने के लिए उक्त तीनों दवाओं में से किसी एक को लेकर बीज पर हल्के से पानी के छींटे देकर हाथों में दस्ताने पहनकर हर दाने पर लपेट देना चाहिए।


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बिजाई व बीज दर

बिजाई करते समय ताना साडे 3 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा ना डालें लाइनों की दूरी 45 सेंटीमीटर अगेती किस्मों के लिए एवं देर से पकने वाली किस्मों के लिए 60 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। अगेती किस्मों में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर मध्यम व देरी से पकने वाली प्रजातियों को 25 सेंटीमीटर दूरी पर लगाना चाहिए। देसी एवं छोटे दाने वाली किस्मों के लिए बीज 16 से 18 किलोग्राम एवं हाइब्रिड किस्म का बीज 20 से 22 किलोग्राम तथा सामान्य संकुल किस्मौं का 18 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग में लाना चाहिए। 

भूमि का उपचार जरूरी

makka ki kheti 

 जिन क्षेत्र में फफूंदी जनित बीमारियों की समस्या है उन क्षेत्रों में जमीन की गहरी जुताई तेज गर्मियों में एक एक हफ्ते के अंतराल पर करें ताकि मिट्टी पलट के सिक जाए। इसके अलावा सड़े हुए गोबर की खाद में ट्राइकोडरमा मिलाकर एक हफ्ते छांव में रखकर उसे भी खेत में बुरक कर तुरंत मिट्टी में मिला देना चाहिए। दीमक के प्रकोप वाले इलाकों में क्लोरो पायरी फास 20 ईसी की  ढाई लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर 20 किलोग्राम बालों में मिलाकर प्रत्येक के किधर से मिट्टी में मिला दें।

मक्का की खेती करने के लिए किसान इन किस्मों का चयन कर अच्छा मुनाफा उठा सकते हैं

मक्का की खेती करने के लिए किसान इन किस्मों का चयन कर अच्छा मुनाफा उठा सकते हैं

आज हम आपको इस लेख में मक्के की खेती के लिए चयन की जाने वाली बेहतरीन किस्मों के बारे में बताने वाले हैं। क्योंकि मक्के की अच्छी पैदावार लेने के लिए उपयुक्त मृदा व जलवायु के साथ-साथ अच्छी किस्म का होना भी बेहद महत्वपूर्ण होता है। 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि खरीफ सीजन में मक्का उत्पादक कृषकों के लिए खुशखबरी है। आज हम मक्का उत्पादक किसानों के लिए मक्के की ऐसी प्रजाति लेकर आए हैं, जिसकी खेती से किसान कम खर्चे में अधिक लाभ उठा सकते हैं। 

साथ ही, उनको मक्के की इन प्रजातियों की सिंचाई भी कम करनी पड़ेगी। मुख्य बात यह है, कि विगत वर्ष ICAR का लुधियाना में मौजूद भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा इन किस्मों को विकसित किया था। 

इन किस्मों में रोग प्रतिरोध क्षमता काफी ज्यादा है एवं पौष्टिक तत्वों की भी प्रचूर मात्रा है। यदि किसान भाई मक्के की इन प्रजातियों की खेती करते हैं, तो उनको अच्छी-खासी उपज मिलेगी।

मक्का की IMH-224 किस्म

IMH-224 किस्म: IMH-224 मक्के की एक उन्नत प्रजाति है। इसको वर्ष 2022 में भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया था। यह एक प्रकार की मक्के की संकर प्रजाति होती है। 

अब ऐसे में झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा के किसान खरीफ सीजन में इसकी बिजाई कर सकते हैं। क्योंकि IMH-224 एक वर्षा आधारित मक्के की प्रजाति होती है। IMH-224 मक्के की किस्म में सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती है। 

बारिश के जल से इसकी सिंचाई हो जाती है। इसका उत्पादन 70 क्टिंल प्रति हेक्टेयर के करीब होता है। मुख्य बात यह है, कि इसकी फसल 80 से 90 दिनों के समयांतराल में तैयार हो जाती है। 

रोग प्रतिरोध होने के कारण से इसके ऊपर चारकोल रोट, मैडिस लीफ ब्लाइट एवं फुसैरियम डंठल सड़न जैसे रोगों का प्रभाव नहीं पड़ता है। 

यह भी पढ़ें: मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का की IQMH 203 किस्म

IQMH 203 किस्म: मक्के की इस प्रजाति को वैज्ञानिकों द्वारा वर्ष 2021 में इजात किया गया था। यह एक प्रकार की बायोफोर्टिफाइड प्रजाति होती है। वैज्ञानिकों ने राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के मक्का उत्पादक किसानों को ध्यान में रखते हुए विकसित किया था।

IQMH 203 प्रजाति 90 दिनों की समयावधि में पककर कटाई हेतु तैयार हो जाती है। जैसा कि हम जानते हैं, कि मक्का एक खरीफ फसल है। कृषक मक्का की IQMH 203 किस्म का उत्पादन खरीफ सीजन में कर सकते हैं। 

इसके अंदर प्रोटीन इत्यादि पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इतना ही नहीं मक्के की इस किस्म को कोमल फफूंदी, चिलोपार्टेलस एवं फ्युजेरियम डंठल सड़न जैसे रोगों से भी अधिक क्षति नहीं पहुँचती है।

मक्का की PMH-1 LP किस्म

PMH-1 LP किस्म: पीएमएच-1 एलपी मक्के की एक कीट और रोग रोधी प्रजाति है। मक्का की इस प्रजाति पर चारकोल रोट एवं मेडिस लीफ ब्लाइट रोगों का प्रभाव बेहद कम होता है। 

पीएमएच-1 एलपी किस्म को दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा एवं पंजाब के किसानों को ध्यान में रखते हुए इजात किया गया है। यदि इन प्रदेशों में किसान इसका उत्पादन करते हैं, तो प्रति हेक्टेयर 95 क्विंटल की पैदावार मिल सकती है। 

मक्का की खेती से किसान भाई अच्छी-खासी आय कर सकते हैं। मक्का की खेती कृषकों के किए काफी फायदेमंद साबित होती है।

उदयपुर शहर के (एमपीयूएटी) द्वारा विकसित की गई मक्का की किस्म 'प्रताप -6'

उदयपुर शहर के (एमपीयूएटी) द्वारा विकसित की गई मक्का की किस्म 'प्रताप -6'

उदयपुर शहर के महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) की तरफ से विकसित की गई मक्का की नवीन किस्म 'प्रताप-6' किसानों के लिए बेहद फायदेमंद सिद्ध हो सकती है। दरअसल, मक्का की यह प्रजाति प्रति हेक्टेयर 70 क्विंटल तक उत्पादन देने में सक्षम है। किसान अपनी फसल से बेहतरीन उत्पादन पाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं। साथ ही, वह फसल के उन्नत बीजों का भी चुनाव करते हैं। जिससे कि वह कम समयावधि में ज्यादा से ज्यादा पैदावार उठा सकें। इसी कड़ी में आज हम किसान भाइयों के लिए मक्का के नवीन व उन्नत किस्म के बीजों की जानकारी लेकर आए हैं, जो प्रति हेक्टेयर लगभग 70 क्विंटल तक उत्पादन देगी। यह किस्म खेत में तकरीबन 80-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मक्का की यह प्रजाति 'प्रताप-6' है, जिसे उदयपुर शहर के महाराणा प्रताप कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के द्वारा तैयार किया गया है। वर्तमान में मक्का की प्रताप-6 किस्मों को लेकर केंद्र सरकार के लिए प्रस्ताव भेज दिया गया है। बतादें, कि जैसे ही इस प्रस्ताव पर सरकार की मंजूरी मिल जाती है, तो यह किस्म किसानों के हाथों में सौंप दी जाएगी।

मक्का की प्रताप-6 किस्म से कितने सारे लाभ होते हैं

मक्का मानव शरीर की ऊर्जा के लिए सबसे बेहतरीन स्त्रोत कहा जाता है। वह इसलिए कि इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और विटामिनों की भरपूर मात्रा पाई जाती है। इसके अतिरिक्त इसमें शरीर के लिए जरूरी खनिज तत्व जैसे कि फास्फोरस, मैग्नीशियम, मैंगनीज, जिंक, कॉपर, आयरन इत्यादि उपस्थिति होते हैं। इसके चलते बाजार में किसानों को मक्का की बेहतरीन कीमत सहजता से मिल जाती है।

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 साथ ही, मक्का की नवीन किस्म प्रताप-6 किसानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी बेहद लाभकारी होती है। बतादें, कि इस नवीन किस्म के मक्के के पौधे को पकने के उपरांत भी हरा ही रहता है, जिसे मवेशी को खिलाने से उनके स्वास्थ्य में बेहतरी देखने को मिल सकती है। ऐसा कहा जा रहा है, कि प्रताप-6 किस्म का पौधा मवेशियों के लिए शानदार गुणवत्ता का हरा चारा है। अंदाजा यह है, कि भारतीय बाजार के अतिरिक्त विदेशी बाजार में भी प्रताप-6 किस्म के मक्का की मांग ज्यादा देखने को मिल सकती है। मक्का की प्रताप-6 किस्म तना सड़न रोग, सूत्र कृमि एवं छेदक कीट इत्यादि के प्रतिरोधी है।

भारतभर में मक्का की कुल कितनी खेती होती है

हिन्दुस्तान के किसानों के द्वारा तकरीबन 90 लाख हेक्टेयर में मक्का की खेती करके किसान मोटी आमदनी अर्जित कर रहे हैं। वहीं, महज केवल उदयपुर में मक्का की 1.50 लाख हेक्टेयर में खेती की जाती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि संपूर्ण राज्य में मक्का की खेती लगभग 9 लाख से ज्यादा हेक्टेयर भूमि में की जाती है।

जानिए मक्के की विश्वभर में उगने वाली किस्म के बारे में

जानिए मक्के की विश्वभर में उगने वाली किस्म के बारे में

हम आपको मक्के की ग्लास जेम कॉर्न प्रजाति के विषय में बताने जा रहे हैं। यह प्रजाति अमेरिका में सबसे पहले उत्पादित की गई थी। परंतु, आज के वक्त में विभिन्न बाकी देशों में भी इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। शारीरिक लाभों में भी यह प्रजाति बेहद फायदेमंद होती है। आपने मक्का की विभिन्न उन्नत प्रजातियों के विषय में काफी सुना होगा। परंतु, आज हम आपको अमेरिका की एक ऐसी सतरंगी मक्के की प्रजाति के बारे में बताने जा रहे हैं, जो आज कल लोगों के मध्य चर्चा का विषय बना हुआ है। मक्के की इस प्रजाति को ग्लास जेम कॉर्न के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल, यह प्रजाति भारत में नहीं बल्कि सबसे पहले अमेरिका में उत्पादित की गई थी। परंतु, इसके रंग बिरंगे दानों ने इसे आज बहुत से देशों में पसंदीदा बना दिया है। भारत में बहुत सारे किसान आज इस किस्म से मोटा पैसा भी कमा रहे हैं। ग्लास जेम कॉर्न की खेती आज के समय में कहीं भी की जा सकती है।

इस किस्म को किसने विकसित किया था

मक्के की इस किस्म की उन्नति के पीछे की कहानी सुनने में भले ही अटपटी लगे परंतु सच जानना बेहद जरूरी है। इसके विकास का श्रेय अमेरिका के एक किसान कार्ल बांर्स ने किया था। दरअसल, उस वक्त उसने अपने मक्के के खेत में लगी हुई ओक्लाहोमा नामक मक्के की किस्म के साथ प्रयोग कर विकसित किया था। वर्तमान में यह दुनिया के कई देशों में उगाई जाती है।

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इन पौधों को आप किस प्रकार उगा सकते हैं

इन पौधों को उगाने के लिए आपको सर्व प्रथम इसके बीजों को इकठ्ठा करना होगा। इसके पश्चात ग्लास जेम कॉर्न के बीजों को खेत अथवा बगीचे में आपके द्वारा विकसित की गई जमीन में पक्तियों को 30 इंच की दूरी के साथ बनाएं। वहीं, जब ग्लास जेम कॉर्न की बीजों को रोपित करने की बात आती है, तो आप इनका 6-12 इंच की दूरी पर रोपण करें। हालांकि ऐसी स्थिति में आप समय-समय पर खाद और पानी देते रहें। कुछ दिनों के अंतर्गत यह परिपक्व होकर कटाई के लायक हो जाएगी। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इसको पकने में तकरीबन 120 दिन का वक्त लगता है।


 

यह प्रजाति शरीर के लिए बेहद फायदेमंद होती है

यह किस्म ना केवल दिखने में बल्कि शारीरिक रूप से भी बहुत फायदेमंद होती है। मक्के की इस प्रजाति में विटामिन A,B और E, मिनरल्स और कैल्शियम काफी भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इसके साथ ही इसमें मिनरल्स और कैल्सियम की मात्रा भी भरपूर होती है। यही वजह है, कि यह किस्म शरीर की विभिन्न बीमारियों से छुटकारा दिलाने में लाभकारी होती है। आप इस किस्म की मक्का को भी अपने दैनिक आहार में शामिल कर सकते हैं।

योगी सरकार मक्का की खेती को बढ़ावा देने के लिए सब्सिड़ी प्रदान कर रही है

योगी सरकार मक्का की खेती को बढ़ावा देने के लिए सब्सिड़ी प्रदान कर रही है

उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में मक्के की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए नई योजना लागू करने जा रही है। इस योजना के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में 2 लाख हेक्टेयर गन्ने का क्षेत्रफल बढ़ेगा और 11 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा मक्के की उपज हांसिल होगी। 

इसके अतिरिक्त योजना के अंतर्गत किसी एक लाभार्थी को ज्यादा से ज्यादा दो हेक्टेयर की सीमा तक सब्सिडी दी जाएगी। 

योगी सरकार संकर मक्का, पॉपकार्न मक्का और देसी मक्का पर 2400 रुपये अनुदान दिया जा रहा है। साथ ही, बेबी मक्का पर 16000 रुपये और स्वीट मक्का पर 20000 रुपये प्रति एकड़ का अनुदान इस योजना के अंतर्गत दिया जाएगा।

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आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि यूपी सरकार की यह योजना 4 सालों के लिए होगी। कैबिनेट की बैठक में कृषि विभाग की ओर से पिछले दिनों में ही इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई, जिसके बाद इस योजना को संचालित किए जाने का शासनादेश जारी कर दिया गया है।

जानिए किन जिलों के किसान भाई होंगे लाभांवित 

यदि मुख्य सचिव कृषि डॉ. देवेश चतुर्वेदी द्वारा जारी शासनादेश के मुताबिक, इस योजना को राज्य के समस्त जनपदों में चलाया जाएगा। 

परंतु, राज्य के 13 जनपदों में- बहराइच, बुलंदशहर, हरदोई, कन्नौज, गोण्डा, कासगंज, उन्नाव, एटा, फर्रुखाबाद, बलिया और ललितपुर जो कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत मक्का फसल के लिए चयनित हैं। 

इन जिलों में इस योजना के वह घटक जैसे-संकर मक्का प्रदर्शन, संकर मक्का बीज वितरण और मेज सेलर को क्रियान्वित नहीं किया जाएगा। क्योंकि ये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन योजना में भी शामिल है।

खाघान्न में तीसरे स्थान पर मक्के की फसल

दरअसल, खाद्यान्न फसलों में गेहूं और धान के पश्चात मक्का तीसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल मानी जाती है। 

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आज के समय में भारत के अंदर मक्के का इस्तेमाल मुख्य तौर पर खाद्य सामग्री के अतिरिक्त पशु चारा, पोल्ट्री चारा और प्रोसेस्ड फूड आदि के तोर पर भी किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त मक्का का उपयोग एथेनॉल उत्पादन में कच्चे तेल पर निर्भरता को काफी कम कर रहा है।

खरीफ सत्र में कितने मी.टन मक्के की पैदावार दर्ज हुई है 

बतादें, कि उत्तर प्रदेश में वर्ष 2022-23 के खरीफ सत्र में 6.97 लाख हेक्टेयर में 14.56 लाख मी.टन मक्के का उत्पादन हुआ था। वहीं, रबी सत्र में 0.10 लाख हेक्टेयर में 0.28 मी.टन और जायद में 0.49 लाख हेक्टेयर में 1.42 लाख मी.टन मक्के की उपज हुई थी।

मक्का की उन्नत किस्में देगी शानदार उत्पादन, जानिये मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में।

मक्का की उन्नत किस्में देगी शानदार उत्पादन, जानिये मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में।

आज के इस आर्टिकल में आपको बताया जाएगा मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में। मक्का की यह किस्में भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान लुधियाना स्थित ICAR द्वारा विकसित की गई है। 

मक्का की यह किस्में प्रति हेक्टेयर 95 क्विंटल उपज प्रदान करती है। मक्का की उन्नत किस्मों का चयन कर किसान ज्यादा उत्पादन कर सकता है और लाभ उठा सकता है। 

मक्का का उत्पादन भारत के बहुत से राज्यों में बड़े स्तर पर किया जाता है। क्योंकि बाजार में इसका अच्छा ख़ासा भाव मिल जाता है। इसके अलावा किसान मक्का की उन्नत किस्मों का चयन कर अधिक पैदावार प्राप्त कर सकते है। 

मक्के की यह उन्नत किस्में कम समय में अधिक पैदावार प्रदान की जाती है। मक्के की यह उन्नत किस्में भारतीय अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई है। 

मक्का की IMH-224 किस्म

भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा यह किस्म 2002 में  विकसित की गई है। मक्का की यह किस्म ज्यादातर उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में उगाई जाती है। 

मक्का की IMH-224 किस्म प्रति हेक्टर में 70 क्विंटल उपज प्रदान करती है। मक्का की ये किम लगभग 80 से 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। 

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मक्का की यह किस्म फुसैरियम डंठल सड़न, चारकोल रोट और मैडिस लीफ ब्लाइट जैसे रोगों से लड़ने में भी काफी सहायक है। 

मक्का की IQMH 203 किस्म

मक्का की यह किस्म Biofortified वैरायटी की मानी जाती है। भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा यह किस्म 2021 में विकसित की गई है। 

मक्का की  यह IQMH 203  किस्म ज्यादातर छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के किसानों के लिए विकसित की गई है। 

मक्का की यह किस्म 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। मक्का की यह किस्म चिलोपार्टेलस, फफूंदी और फ्युजेरियम डंठल सड़न जैसे रोगों से फसल को बचाती है। 

मक्का की PMH-1 LP किस्म

मक्का की यह किस्म ज्यादातर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड राज्यों में उगाई जाती है। मक्का की यह किस्म प्रति हेक्टेयर 90 क्विंटल उपज प्रदान करती है। 

मक्का की इस किस्म में रोग और कीट लगने की काफी कम संभावनाएं होती है। यह मक्का के फसल में लगने वाले कीट और रोगों को नियंत्रित करने में भी सहायक होती है। 

पुरे देश में अधिकतर किसान धान की खेती के बाद मक्का की खेती करते है। किसानों द्वारा मक्का की खेती पशुओ के हरे चारे, भुट्टे और दाने के लिए की जाती है। 

मक्का के फसल बहुत ही कम समय में पककर तैयार हो जाती है। किसानों द्वारा मक्का की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए  ताकि अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। 

मक्के की खेती आर्द और उष्ण जलवायु में भी आसानी से की जा सकती है। मक्का की खेती के लिए अच्छी जल निकास वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। 

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़ करें मक्का की खेती 

मक्का की बुवाई के लिए किसानों को गेहूँ की कटाई के बाद खेत में गोबर खाद को मिला देना चाहिए। खेत में गोबर खाद के प्रयोग से भूमि की उत्पादन क्षमता बढ़ती है। 

मक्का की बुवाई का समय मई और जून के बीच में होता है। यदि किसान वैज्ञानिकों के मुताबिक़ मक्का की खेती करता है, तो उन्हें ज्यादा मुनाफा हो सकता है। 

वैज्ञानिकों के मुताबिक़ किसानों को मक्का की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए। कई बार किसान बिना चयन करे ही फसल की बुवाई कर देता है जिससे फसल में रोग लगने की भी ज्यादा आशंकाये रहती है और उत्पादन क्षमता भी घट जाती है। इसका पूरा असर फसल की गुणवत्ता पर पड़ता है। 

बुवाई के समय पर बीज का उपचार 

मक्का की बुवाई करने से पहले किसानों द्वारा बीज को उपचारित कर लेना चाहिए। बुवाई से पहले मक्का के प्रति किलो बीज में 2 ग्राम कार्बेंडाजिम और 1 मिलीलीटर इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करें।  

उसके बाद प्रति एकड़ बीज में 200 मिलीलीटर एजोटोबेक्टर और 200 मिलीलीटर पीएसबी मिला कर बीज को उपचारित किया जा सकता है। 

इन सभी के अलावा किसान बीज उपचार करने के लिए नत्रजन, पोटाश, जिंक सलफेट और फॉस्फोरस का उपयोग भी किया जा सकता है। 

बुवाई के समय रखे इन बातों का ख़ास ख्याल 

असंचित भूमि पर किसानों को उर्वरक की आधी मात्रा का उपयोग करना चाहिए। मक्का की बुवाई के बाद किसानों को खेत में अतराजीन और पेंदीमैथलीन को पानी में मिलाकर खेत में छिड़कना चाहिए। 

यह कीटनाशक खेत में होने वाली खरपतवार को नियंत्रित करता है। मक्का की फसल में झुलसा रोग लगने की भी ज्यादा सम्भावनाये होती है। इसीलिए फसल को झुलसा रोग से बचाने के लिए कवकनाशी कार्बेंडाजिम का छिड़काव भी कर सकते है। 

मक्का की फसल में रोग लगने की ज्यादा सम्भावनाये होती है। मक्के की फसल में धब्बेदार, गुलाबी तनाबेधक कीट और तनाबेधक लगने के ज्यादा सम्भावनाये रहती है। 

किसान मक्के की फसल के साथ मूँग, सोयाबीन और तिल की खेती भी कर सकता है। जिससे किसान बेहतर मुनाफा कमा सकता  है।

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून का मौसम किसान भाइयों के लिए कुदरती वरदान के समान होता है। मानसून के मौसम होने वाली बरसात से उन स्थानों पर भी फसल उगाई जा सकती है, जहां पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। पहाड़ी और पठारी इलाकों में सिंचाई के साधन नही होते हैं। इन स्थानों पर मानसून की कुछ ऐसी फसले उगाई जा सकतीं हैं जो कम पानी में होतीं हों। इस तरह की फसलों में दलहन की फसलें प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ फसलें ऐसी भी हैं जो अधिक पानी में भी उगाई जा सकतीं हैं। वो फसलें केवल मानसून में ही की जा सकतीं हैं। आइए जानते हैं कि कौन-कौन सी फसलें मानसून के दौरान ली जा सकतीं हैं।

मानसून सीजन में बढ़ने वाली 5 फसलें:

1.गन्ना की फसल

गन्ना कॉमर्शियल फसल है, इसे नकदी फसल भी कहा जाता है। गन्ने  की फसल के लिए 32 से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान होना चाहिये। ऐसा मौसम मानसून में ही होता है। गन्ने की फसल के लिए पानी की भी काफी आवश्यकता होती है। उसके लिए मानसून से होने वाली बरसात से पानी मिल जाता है। मानसून में तैयार होकर यह फसल सर्दियों की शुरुआत में कटने के लिए तैयार हो जाती है। फसल पकने के लिए लगभग 15 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है। गन्ने की फसल केवल मानसून में ही ली जा सकती है। इसकी फसल तैयार होने के लिए उमस भरी गर्मी और बरसात का मौसम जरूरी होता है। गन्ने की फसल पश्चिमोत्तर भारत, समुद्री किनारे वाले राज्य, मध्य भारत और मध्य उत्तर और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में अधिक होती है। सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन तमिलनाडु राज्य  में होता है। देश में 80 प्रतिशत चीनी का उत्पादन गन्ने से ही किया जाता  है। इसके अतिरिक्त अल्कोहल, गुड़, एथेनाल आदि भी व्यावसायिक स्तर पर बनाया जाता है।  चीनी की अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मांग को देखते हुए किसानों के लिए यह फसल अत्यंत लाभकारी होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=XeAxwmy6F0I&t[/embed]

2. चावल यानी धान की फसल

भारत चावल की पैदावार का बहुत बड़ा उत्पादक देश है। देश की कृषि भूमि की एक तिहाई भूमि में चावल यानी धान की खेती की जाती है। चावल की पैदावार का आधा हिस्सा भारत में ही उपयोग किया जाता है। भारत के लगभग सभी राज्यों में चावल की खेती की जाती है। चावलों का विदेशों में निर्यात भी किया जाता है। चावल की खेती मानसून में ही की जाती है क्योंकि इसकी खेती के लिए 25 डिग्री सेल्सियश के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है और कम से कम 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून से पानी मिलने के कारण इसकी खेती में लागत भी कम आती है। भारत के अधिकांश राज्यों व तटवर्ती क्षेत्रों में चावल की खेती की जाती है। भारत में धान की खेती पारंपरिक तरीकों से की जाती है। इससे यहां पर चावल की पैदावार अच्छी होती है। पूरे भारत में तीन राज्यों  पंजाब,पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक चावल की खेती की जाती है। पर्वतीय इलाकों में होने वाले बासमती चावलों की क्वालिटी सबसे अच्छी मानी जाती है। इन चावलों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। इनमें देहरादून का बासमती चावल विदेशों में प्रसिद्ध है। इसके अलावा पंजाब और हरियाणा में भी चावल केवल निर्यात के लिए उगाया जाता है क्योंकि यहां के लोग अधिकांश गेहूं को ही खाने मे इस्तेमाल करते हैं। चावल के निर्यात से पंजाब और हरियाणा के किसानों को काफी आय प्राप्त होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=QceRgfaLAOA&t[/embed]

3. कपास की फसल

कपास की खेती भी मानसून के सीजन में की जाती है। कपास को सूती धागों के लिए बहुमूल्य माना जाता है और इसके बीज को बिनौला कहते हैं। जिसके तेल का व्यावसायिक प्रयोग होता है। कपास मानसून पर आधारित कटिबंधीय और उष्ण कटिबंधीय फसल है। कपास के व्यापार को देखते हुए विश्व में इसे सफेद सोना के नाम से जानते हैं। कपास के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है। कपास की खेती के लिए 21 से 30 डिग्री सेल्सियश तापमान और 51 से 100 सेमी तक वर्षा की जरूरत होती है। मानसून के दौरान 75 प्रतिशत वर्षा हो जाये तो कपास की फसल मानसून के दौरान ही तैयार हो जाती है।  कपास की खेती से तीन तरह के रेशे वाली रुई प्राप्त होती है। उसी के आधार पर कपास की कीमत बाजार में लगायी जाती है। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक,तमिलनाडु और उड़ीसा राज्यों में सबसे अधिक कपास की खेती होती है। एक अनुमान के अनुसार पिछले सीजन में गुजरात में सबसे अधिक कपास का उत्पादन हुआ था। अमेरिका भारतीय कपास का सबसे बड़ा आयातक है। कपास का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण इसकी खेती से बहुत अधिक आय होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=nuY7GkZJ4LY[/embed]

4.मक्का की फसल

मक्का की खेती पूरे विश्व में की जाती है। हमारे देश में मक्का को खरीफ की फसल के रूप में जाना जाता है लेकिन अब इसकी खेती साल में तीन बार की जाती है। वैसे मक्का की खेती की अगैती फसल की बुवाई मई माह में की जाती है। जबकि पारम्परिक सीजन वाली मक्के की बुवाई जुलाई माह में की जाती है। मक्का की खेती के लिए उष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त रहती है। गर्म मौसम की फसल है और मक्का की फसल के अंकुरण के लिए रात-दिन अच्छा तापमान होना चाहिये। मक्के की फसल के लिए शुरू के दिनों में भूमि ंमें अच्छी नमी भी होनी चाहिए। फसल के उगाने के लिए 30 डिग्री सेल्सियश का तापमान जरूरी है। इसके विकास के लिए लगभग तीन से चार माह तक इसी तरह का मौसम चाहिये। मक्का की खेती के लिए प्रत्येक 15 दिन में पानी की आवश्यकता होती है।मक्का के अंकुरण से लेकर फसल की पकाई तक कम से कम 6 बार पानी यानी सिंचाई की आवश्यकता होती है  अर्थात मक्का को 60 से 120 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून सीजन में यदि पानी सही समय पर बरसता रहता है तो कोई बात नहीं वरना सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा मक्का की फसल कमजोर हो जायेगी। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में सबसे अधिक मक्का की खेती होती है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, जम्मू कश्मीर और हिमाचल में भी इसकी खेती की जाती है।

5.सोयाबीन की फसल

सोयाबीन ऐसा कृषि पदार्थ है, जिसका कई प्रकार से उपयोग किया जाता है। साधारण तौर पर सोयाबीन को दलहन की फसल माना जाता है। लेकिन इसका तिलहन के रूप में बहुत अधिक प्रयोग होने के कारण इसका व्यापारिक महत्व अधिक है। यहां तक कि इसकी खल से सोया बड़ी तैयार की जाती है, जिसे सब्जी के रूप में प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। सोयाबीन में प्रोटीन, कार्बोहाइडेट और वसा अधिक होने के कारण शाकाहारी मनुष्यों के लिए यह बहुत ही फायदे वाला होता है। इसलिये सोयाबीन की बाजार में डिमांड बहुत अधिक है। इस कारण इसकी खेती करना लाभदायक है। सोयाबीन की खेती मानसून के दौरान ही होती है। इसकी बुवाई जुलाई के अन्तिम सप्ताह में सबसे उपयुक्त होती है। इसकी फसल उष्ण जलवायु यानी उमस व गर्मी तथा नमी वाले मौसम में की जाती है। इसकी फसल के लिए 30-32 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है और फसल पकने के समय 15 डिग्री सेल्सियश के तापमान की जरूरत होती है।  इस फसल के लिए 600 से 850 मिलीमीटर तक वर्षा चाहिये। पकने के समय कम तापमान की आवश्यकता होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=AUGeKmt9NZc&t[/embed]
मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का का उपयोग हर क्षेत्र में समय के साथ-साथ बढ़ता चला जा रहा है। अब चाहे वह खाने में हो अथवा औद्योगिक छेत्र में। मक्के की रोटी से लेकर भुट्टे सेंककर, मधु मक्का के कॉर्नफलेक्स, पॉपकार्न आदि के तौर पर होता है। 

वर्तमान में मक्का का इस्तेमाल कार्ड आइल, बायोफयूल हेतु भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का इस्तेमाल मुर्गी एवं पशु आहार के तौर पर किया जाता है। 

भुट्टे तोड़ने के उपरांत शेष बची हुई कड़वी पशुओं के चारे के तौर पर उपयोग की जाती है। औद्योगिक दृष्टिकोण से मक्का प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट, पेन्ट्स, स्याही, लोशन, स्टार्च, कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने के उपयोग में लिया जाता है। 

बिना परागित मक्का के भुट्टों को बेबीकार्न मक्का कहा जाता है। जिसका इस्तेमाल सब्जी एवं सलाद के तौर पर किया जाता है। बेबीकार्न पौष्टिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण साबित होता है।

मक्का की खेती करने हेतु कैसी जमीन होनी चाहिए

सामान्यतः
मक्के की खेती को विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, इसके लिए दोमट मृदा अथवा बुलई मटियार वायु संचार एवं जल की निकासी की उत्तम व्यवस्था के सहित 6 से 7.5 पीएच मान वाली मृदा अनुकूल मानी गई है।

मक्का की खेती हेतु कौन-सी मृदा उपयुक्त होती है

मक्के की फसल के लिए खेत की तैयारी जून के माह से ही शुरू करनी चाहिए। मक्के की फसल के लिए गहरी जुताई करना काफी फायदेमंद होता है। 

खरीफ की फसल के लिए 15-20 सेमी गहरी जुताई करने के उपरांत पाटा लगाना चाहिए। जिससे खेत में नमी बनी रहती है। इस प्रकार से जुताई करने का प्रमुख ध्येय खेत की मृदा को भुरभुरी करना होता है। 

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फसल से बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मृदा की तैयारी करना उसका प्रथम पड़ाव होता है। जिससे प्रत्येक फसल को गुजरना पड़ता है।

मक्का की फसल के लिए खेत की तैयारी के दौरान 5 से 8 टन बेहतरीन ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे डालनी चाहिए। 

भूमि परीक्षण करने के बाद जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 किलो जिंक सल्फेट बारिश से पहले खेत में डाल कर खेत की बेहतर ढ़ंग से जुताई करें। रबी के मौसम में आपको खेत की दो वक्त जुताई करनी पड़ेगी।

मक्के की खेती को प्रभवित करने वाले कीट और रोग तथा उनका इलाज

मक्का कार्बोहाईड्रेट का सबसे अच्छा स्रोत होने साथ-साथ एक स्वादिष्ट फसल भी है, जिसके कारण इसमें कीट संक्रमण भी अधिक होता है। मक्का की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के विषय में चर्चा करते हैं।

गुलाबी तनाबेधक कीट

इस कीट का संक्रमण होने से पौधे के बीच के हिस्से में हानि पहुँचती है, जिसके परिणामस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है। इस वजह से पौधे पर दाने नहीं आते है।

मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट

इस तरह के कीट पौधे की जड़ों को छोड़कर सभी हिस्सों को बुरी तरह प्रभावित करते है। इस कीट की इल्ली सबसे पहले तने में छेद करती है। इसके संक्रमण से पौधा छोटा हो जाता है और उस पौधे में दाने नहीं आते हैं। आरंभिक स्थिति में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है। इसे पौधे के निचले भाग की दुर्गंध से पहचाना जा सकता है।

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उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है

तनाछेदक की रोकथाम करने के लिये अंकुरण के 15 दिन के उपरांत फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे अथवा कार्बोरिल 50 फीसद डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना उपयुक्त होता है। इसके 15 दिनों के उपरांत 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों पर डाल दें।

मक्का में लगने वाले मुख्य रोग

1. डाउनी मिल्डयू :- इस रोग का संक्रमण मक्का बुवाई के 2-3 सप्ताह के उपरांत होना शुरू हो जाता है। बतादें, कि सबसे पहले पर्णहरिम का ह्रास होने की वजह से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती हैं, प्रभावित भाग सफेद रूई की भांति दिखाई देने लगता है, पौधे की बढ़वार बाधित हो जाती है। 

उपचार :- डायथेन एम-45 दवा को पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव जरूर करना चाहिए। 

2. पत्तियों का झुलसा रोग :- पत्तियों पर लंबे नाव के आकार के भूरे धब्बे निर्मित होते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़ते हुए ऊपर की पत्तियों पर फैलना शुरू हो जाते हैं। नीचे की पत्तियां रोग के चलते पूर्णतया सूख जाती हैं। 

उपचार :- रोग के लक्षण नजर पड़ते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए। 

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3. तना सड़न :- पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण शुरू होता है। इससे विगलन के हालात उत्पन्न होते हैं एवं पौधे के सड़े हुए हिस्से से दुर्गंध आनी शुरू होने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर के सूख जाती हैं। साथ ही, पौधे भी कमजोर होकर नीचे गिर जाती है। 

उपचार :- 150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों में देना चाहिये।

मक्का की फसल की कटाई और गहाई कब करें

फसल समयावधि पूरी होने के बाद मतलब कि चारे वाली फसल की बुवाई के 60-65 दिन उपरांत, दाने वाली देशी किस्म की बुवाई के 75-85 दिन बाद, एवं संकर एवं संकुल किस्म की बुवाई के 90-115 दिन पश्चात तथा दाने मे करीब 25 प्रतिशत तक नमी हाने पर कटाई हो जानी चाहिए। 

 मक्का की फसल की कटाई के पश्चात गहाई सबसे महत्वपूर्ण काम है। मक्का के दाने निकालने हेतु सेलर का इस्तेमाल किया जाता है। सेलर न होने की हालत में थ्रेशर के अंदर सूखे भुट्टे डालकर गहाई कर सकते हैं।